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जब अमेरिका को नहीं रास आया अंग्रेजी हुकूमत का फरमान

International Affairs
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आज पूरी दुनिया में अपनी ताकत का लोहा मनवा रहा अमेरिका एक समय पहले अंग्रेजी हुकूमत तले जी रहा था, ब्रिटिश शासकों के हर हुक्म की तामील करता था. अमेरिकी अपने देश में रहता तो था लेकिन उसकी कमान ब्रिटिश शासकों के ही हाथ में थी. लेकिन कोई कब तक किसी को दबाए रख सकता है….जब दर्द की इंतहा हो जाती है तो कमजोर से कमजोर व्यक्ति के मुंह से भी आवाज निकल जाती है यह तो अमेरिका था जिसने पूरी दुनिया पर राज करने का सपना देखना तभी शुरू कर दिया था. लेकिन यह सपना तभी पूरा हो सकता था जब पहले खुद को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करवाया जाता.



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कहते हैं अगर आजाद होने की तमन्ना हो तो किसी भी जोखिम से डर नहीं लगता और अमेरिकी नागरिकों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. 18वीं शताब्दी तक अमेरिका ब्रिटिश ताकत के अधीन था लेकिन 16 दिसंबर 1773 को हुई एक घटना, जो बोस्टन चाय पार्टी के नाम से मशहूर है, ने अमेरिका की तकदीर पलटकर रख दी. उल्लेखनीय है कि वर्ष 1773 में ब्रिटिश संसद में एक प्रस्ताव पारित कर अमेरिकियों पर चाय के आयात पर प्रतीक के तौर पर कुछ कर लगा दिया गया. यह कर बहुत ज्यादा नहीं बल्कि सिर्फ प्रतीक के ही तौर पर लगाया गया था जिसका अर्थ यह दर्शाना था कि अमेरिका ब्रिटेन का गुलाम है. लेकिन अमेरिका को यह कतई मंजूर नहीं था कि उसके सम्मान और संप्रभुता के साथ कोई खिलवाड़ करे इसीलिए वह प्रतीकात्मक कर भी उसे बहुत भारी लगता था.


इसी प्रतीकात्मक कर के विरोध में संस ऑफ लिबर्टी नामक एक राजनीतिक दल के सदस्यों ने बोस्टन हार्बर पर चाय के तीन जहाजों को वापस ब्रिटेन लौटने से मना कर दिया और जहाजों में भरी चाय को चेस्टर नदी में बहा दिया. यह अमेरिकी लोगों के विरोध का तरीका था जिसके अनुसार उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि उनके लिए उनकी संप्रभुत्ता से बढ़कर और कुछ नहीं है.



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बोस्टन टी पार्टी के नाम से मशहूर इस घटना को चेस्टरटाउन टी पार्टी भी कहा जाता है. इस घटना के बाद अमेरिका में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कार्यवाहियां बढ़ती गईं और अंतत: 1775 में इस घटना ने ‘अमेरिकी क्रांति’ को जन्म दिया. आज भी इस घटना को अमेरिका में होने वाले राजनैतिक विरोधों के दौरान बोस्टन टी पार्टी का हवाला दिया जाता है. इतना ही नहीं बोस्टन टी पार्टी की याद में प्रतिवर्ष अमेरिका में  ‘चेस्टरटाउन टी पार्टी फेस्टिवल’  भी मनाया जाता है.



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