- 94 Posts
- 5 Comments
श्रीलंका में सिंहली और तमिलों के बीच गृहयुद्ध को चलते हुए कई बरस हो गए लेकिन ना तो राष्ट्रीय और ना ही वैश्विक स्तर पर इसका निदान खोजा जा सका है. अब जबकि श्रीलंका, भारत के सबसे करीबी पड़ोसियों में से एक है तो ऐसे में वहां मची उठा-पटक से भारतीय व्यवस्था कैसे अछूती रह सकती थी. श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे अत्याचारों की रोकथाम और राष्ट्र में शांति बहाली के लिए भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कई प्रयास भी किए लेकिन अभी तक इस समस्या को सुलझाया नहीं जा सका है. आपको याद होगा पिछले दिनों भी दक्षिण भारत के सबसे प्रमुख राजनीतिक दल डीएमके ने श्रीलंका में भारतीय तमिलों पर होने वाले अत्याचारों पर भारतीय सरकार से हस्तक्षेप करने की मांग उठाई थी, इसके अलावा डीएमके प्रमुख करुणानिधि की यह भी मांग थी कि संयुक्त राष्ट्र में श्रीलंका के विरुद्ध अपनी राय रखी जाए. भारत की विदेश नीति के तहत भारत किसी भी देश के आंतरिक मसले में हस्तक्षेप नहीं कर सकता लेकिन इस मामले में भारत ने अपनी परंपरागत विदेश नीति को दरकिनार कर दिया.
गठबंधन की राजनीति का कुप्रभाव भारत की विदेश नीति पर पड़ा और करुणानिधि की गठबंधन से अलग होने की धमकी के बाद केन्द्रीय सरकार ने डीएमके की मांग के आगे घुटने टेक दिए और श्रीलंका को अपना कट्टर दुश्मन मानकर उसके साथ अपने सभी रिश्ते खत्म कर दिए. यहां तक कि कोलंबो (श्रीलंका) में हो रही राष्ट्रमंडल बैठक में भी भारत भाग नहीं ले रहा. सभी राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुख वहां पहुंच चुके हैं लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राजनीतिक मजबूरियों की वजह से वहां नहीं गए.
ऐसा करके भले ही अंदरूनी राजनीति को संभाल लिया गया हो लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यह भारत की कूटनीतिक हार है. अपनी विदेश नीति की वजह से विश्वभर में अपने लिए एक अलग मुकाम हासिल कर चुका भारत आज अपनी ही वजह से हार का सामना कर रहा है. श्रीलंका, भारत का सबसे निकट पड़ोसी है और उस पर चीन और पाकिस्तान जैसे देशों की नजर टिकी हुई है. विदेश नीति और अन्य कूटनीतिक निर्णयों को अलग-अलग करके देखा नहीं जा सकता लेकिन प्रधानमंत्री का श्रीलंका ना जाना संबंधों में और अधिक खटास घोलने का काम कर रहा है.
भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को श्रीलंका जाकर सभी मुद्दों पर विमर्श करना चाहिए था लेकिन इसके विपरीत हठी रवैया अपनाकर हमने कूटनीतिक स्तर पर हार का सामना किया है. केन्द्रीय सरकार और हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस समय थोड़ी सूझबूझ और परिपक्वता से काम लेना चाहिए था लेकिन राजनैतिक रूप से कमजोर पड़ चुकी संप्रग सरकार ने गठबंधन के अलावा किसी भी चीज की फिक्र नहीं की. इस बैठक में शामिल ना होने के कारण दुनियाभर के सामने यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि अब भारत और श्रीलंका का संबंध ठीक नहीं है और जाहिर सी बात है चीन, जो एशिया समेत विश्व के सामने एक चुनौती के तौर पर उभर चुका है, को भारत और श्रीलंका के बीच दूरियां बढ़ाकर श्रीलंका को समर्थन देने का अवसर मिल जाएगा. हालांकि लिट्टे को हराने के लिए भारत ने अपने पड़ोसी देश की बहुत मदद की है लेकिन जब चीन को श्रीलंका के साथ दोस्ती निभाने का मौका मिल जाएगा जो जाहिर तौर पर भारत के लिए एक चिंता की बात साबित हो सकती है.
Read Comments