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ऐसे समय में भी नेपाल में ये क्या कर रहे हैं धर्म के ठेकेदार

International Affairs
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इसे धर्मांधता नहीं कहा जा सकता. यहां कहीं भी धर्म नहीं है. नेपाल भूकंप के बाद यह बस कुछ बानगी है जो दिखाती है कि हमारी सोच किस युग की है. इंसान भले ही दावा करे कि वह भौतिक रूप से 21वीं शताब्दी में पहुंच चुका है पर मानसिक रूप से वह मध्ययुगीन संस्कृति में ही जी रहा है. भूकंप ने ना मंदिरों को बख्शा, न चर्च को और ना हीं मस्जिदों को, पर इंसान है कि इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी के बीच धार्मिक मान्यताओं और प्रतीकों में उलझा हुआ है.


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अभी पाकिस्तान द्वारा राहत सामग्री में बीफ मसाला भेजने का विवाद थमा ही नहीं थी कि क्रिश्चियन मिशनरी द्वारा राहत सामग्री में बाइबिल भेजने से फिर हो-हल्ला मचने लगा है. नेपाल एक हिंदू बहुसंख्यक देश है. नेपाल में पाकिस्तान द्वारा बीफ मसाला भेजना एक गलती थी या जानबूझकर किया कृत्य यह तो नहीं कहा जा सकता पर इसपर पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने अपनी सफाई देकर मामले को शांत करने की कोशिश जरूर की. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता तसनीम असलम ने इस मामले को तूल देने के लिए भारतीय मीडिया को दोषी करार दिया.


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क्रिश्चियन मिशनरी द्वारा बाइबिल भेजे जाने पर प्रतिक्रिया देते हुए नेपाली प्रधानमंत्री सुशील कोइराला ने ठीक ही कहा कि, “इस समय नेपाल को भोजन, पानी और सहायता करने वाले हाथों की जरूरत है, न की बेस्ट सेलर किताबों की.” क्रिश्चियन मिशनरी के इस भोलेपन पर यकीन करना मुश्किल है कि इस कृत्य के पीछे उनका मकसद भूकंप पीड़ितों का धर्मांतरण कराना कतई नहीं था.


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इत्तेफाक से या फिर अच्छे स्थापत्य कला के कारण काठमांडू का पशुपतिनाथ मंदिर को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा. इस इत्तेफाक को हिंदू धर्म के कुछ हिमायती और मीडिया का एक वर्ग यह साबित करने पर तुल गया कि यह चमत्कार पशुपतिनाथ या शंकर जी का है. यह दावा करना कितना बेतुका है कि शंकर जी ने अपना मंदिर बचा लिया और सारे देश के घर और मंदिर को ढह जाने दिया. यह 21वीं शताब्दी है. थोड़ी तो वैज्ञानिक बुद्धि पैदा करो.


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मीडिया के एक वर्ग ने तो पूरी तरह भूगर्भीय कारणों से आने वाले भूकंप के पीछे धार्मिक कारण ढ़ूंढ लिया. इस वर्ग ने यह दावा करने में देर नहीं लगाई कि नेपाल में चलने वाली पशुबलि की परंपरा ही भूकंप आने के पीछे कारण है. गौरतलब है कि नेपाल गढ़मई मेले में पशुओं की सामूहिक बलि दी जाती है. शक्ति की देवी गढ़मई के सम्मान में सामूहिक पशुबलि का यह त्योहार हर पांच साल में मनाया जाता है जिसमें लाखों पशुओं की बलि चढ़ाई जाती है. जानवरों की इस संख्या में हत्या किए जाने को मूर्खता के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता पर भूकंप के लिए इस प्रथा को जिम्मेदार ठहराना मूर्खता की हद है.


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अच्छा होता कि गौतम बुद्ध की जन्मस्थान वाले नेपाल में संकट के इस घड़ी में धर्मों के ठेकेदार अपने-अपने धर्म को बचाने के बजाए मानवता को बचाने की कोशिश करें. इंसानी जान, इंसानों द्वारा बनाए गए धर्मों से कहीं अधिक कीमती हैं. Next…


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